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ए꣡न्द्र꣢ याहि꣣ ह꣡रि꣢भि꣣रु꣢प꣣ क꣡ण्व꣢स्य सुष्टु꣣ति꣢म् । दि꣣वो꣢ अ꣣मु꣢ष्य꣣ शा꣡स꣢तो꣣ दि꣡वं꣢ य꣣य꣡ दि꣢वावसो ॥३४८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

एन्द्र याहि हरिभिरुप कण्वस्य सुष्टुतिम् । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥३४८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । इ꣣न्द्र । याहि । ह꣡रि꣢꣯भिः । उ꣡प꣢꣯ । क꣡ण्व꣢꣯स्य । सु꣣ष्टुति꣢म् । सु꣣ । स्तुति꣢म् । दि꣣वः꣢ । अ꣣मु꣡ष्य꣢ । शा꣡स꣢꣯तः । दि꣡व꣢꣯म् । य꣣य꣢ । दि꣣वावसो । दिवा । वसो ॥३४८॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 348 | (कौथोम) 4 » 2 » 1 » 7 | (रानायाणीय) 3 » 12 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से जगदीश्वर का आह्वान किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! आप (हरिभिः) अपनी अध्यात्म-प्रकाश की किरणों के साथ (कण्वस्य) मुझ मेधावी की (सुस्तुतिम्) शुभ स्तुति को (उप आयाहि) समीपता से प्राप्त कीजिए। आगे स्तोता अपने आत्मा को कहता है—हे (दिवावसो) दीप्तिधन के इच्छुक मेरे अन्तरात्मन् ! तू (शासतः) शासक, (अमुष्य) चर्म-चक्षुओं से न दीखनेवाले उस (दिवः) दीप्तिमान् परमात्मा के (दिवम्) प्रकाशक तेज को (यय) प्राप्त कर ॥७॥ इस मन्त्र में ‘दिवो, दिवं, दिवा’ में वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है ॥७॥

भावार्थभाषाः -

यदि हमारी स्तुति हृदय से निकली है, तो परमेश्वर उसे सुनता ही है। हमें भी उसका सान्निध्य प्राप्त कर उसके तेज से तेजस्वी बनना चाहिए ॥७॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथेन्द्रनाम्ना जगदीश्वरमाह्वयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! त्वम् (हरिभिः) स्वकीयैः अध्यात्मप्रकाशकिरणैः सह। हरयः सुपर्णाः हरणा आदित्यरश्मयः इति निरुक्तम्, ७।२४। (कण्वस्य) मेधाविनो मम। कण्व इति मेधाविनाम, निघं० ३।१५। (सुस्तुतिम्) शोभनां स्तुतिम् (उप आयाहि) उपागच्छ। अथ स्तोता स्वात्मानमाह। हे (दिवावसो२) दीप्तिधनेच्छो मदीय अन्तरात्मन् ! त्वम् (शासतः) शासकस्य (अमुष्य) चर्मचक्षुर्भिरदृश्यमानस्य तस्य (दिवः) द्योतमानस्य परमात्मनः (दिवम्) प्रकाशकं तेजः (यय) प्राप्नुहि। या प्रापणे धातोः ‘याहि’ इति प्राप्ते छान्दसं रूपमिदम्। यद्वा यय धातुः पृथक् कल्पनीया ॥७॥ अत्र ‘दिवो, दिवं, दिवा’ इत्यत्र वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः ॥७॥

भावार्थभाषाः -

स्तुतिरस्माकं हार्दिकी चेत् तदा परमेश्वरस्तां शृणोत्येव। अस्माभिस्तत्सान्निध्यं प्राप्य तत्तेजसा तेजस्विभिर्भाव्यम् ॥७॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।३४।१, साम० १८०७। २. दिवावसो दीप्तधन—इति वि०। दीप्त्यावासक—इति भ०। दीप्तहविष्क इन्द्र—इति सा०।